
कुछ समय पहले मैंने लिखा है कि जून’2020 में बृहष्पति, शुक्र, केतु और सूर्य के संयोग से एक ऐसे योग का निर्माण होने जा रहा है जिसे शास्त्रकारों ने ‘वर्णसंकर का नाश’ कहा है| इसका एक अर्थ यह भी है कि यूरोपीय देश और अमेरिका की स्थिति डावांडोल होने का संकेत है ग्रहों के द्वारा|
इनकी स्थिति डावांडोल होती है तो भारतवर्ष के लिए यह एक सुअवसर है, अपनी गरिमा को वापस विश्व के पटल पर स्थापित करने का| हालाँकि यह आसान नहीं है, खासकर वैसे समय में जब देश आतंरिक अस्थिरता से जूझ रहा हो| प्राकृतिक अस्थिरता से भी फिलहाल मुक्त होने के आसार नहीं दिख रहे हैं| आने वाले नवंबर माह और दिसंबर माह में देश के उत्तरी पश्चिमी भाग, पश्चिमी भाग, बिहार, ओडिशा, उत्तरप्रदेश, इम्फाल, इन प्रदेशों में प्रकृति अपना प्रकोप दिखाएगी|
असंतुलन की इस अवस्था में धर्म ही हमारी रक्षा कर सकता है और हमें अपनी गरिमा की प्राप्ति करा सकता है|
क्या है यह धर्म ??
पिछले लगभग दो सौ सालों में भारत के जो धार्मिक विश्वास थे उनके बारे में नकारात्मक छवि पेश की जाने लगी| भारत के लोगों के मनोबल और अपने ही धर्म के प्रति आस्था को कम करने की साजिश तेज हो गयी|
सामाजिक, शैक्षिक, राजनीतिक तरीके से इसपर प्रहार किया जाने लगा| धर्म की परिभाषा तो छोड़िये, धर्म को ही परिवर्तित किया जाने लगा| परिणाम— मतिहीन, गतिहीन और दिशाहीन वर्णसंकर समाज की संरचना| पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुगमन| धर्म को religion से जोड़कर देखा और समझा जाने लगा|
कुरुक्षेत्र युद्ध भूमि में कर्ण ने श्री कृष्ण को कहा – अर्जुन हमें धर्म के विरुद्ध मारने जा रहा है| हमारे रथ का पहिया भूमि में धंस गया है और यह हमपर बाण चला रहा है| यह अधर्म है| कृष्ण ने कहा कि – हे कर्ण ! जब भरी सभा में द्रौपदी को वेश्या कहा था, क्या वह धर्म था ?? भीम को विष दिया गया तब तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था ??
अलग अलग ग्रंथों ने और मनीषियों ने धर्म के बारे में क्या कहा है उसे देखें –
धर्म क्या है और अधर्म क्या है इसका फैसला वेद करते हैं|
1- वेद जो कहे वह धर्म है और वेद के प्रतिकूल जो है वह अधर्म है| ऋग्वेदीय मनुष्य धर्म के माध्यम से दर्शन के क्षेत्र में प्रवेश करता है|
वेद के अनुसार जिस अंतःकरण के कारण मनुष्य है उसका धर्म है विचार करना|
2 -मनुस्मृति के अनुसार – धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः |
मनुस्मृति ने धर्म के दस लक्षण गिनाये हैं –
धृति क्षमा दम अस्तेय शौच इन्द्रियनिग्रह धी विधा सत्य और अक्रोध |
3 – रामचरितमानस में, तुलसीदास द्वारा वर्णित धर्मरथ –
सौरज धीरज तेहि रथ चाका | सत्य सील दृढ ध्वजा पताका ||
बल बिबेक दम परहित घोरे | छमा कृपा समता रजु जोरे ||
ईस भजनु सारथि सुजाना | बिरति चर्म संतोष कृपाना ||
दान परसु बूढी सक्ति प्रचंडा | बर बिग्यान कठिन कोदंडा ||
अमल अचल मन त्रोन समाना | सम जम नियम सिलीमुख नाना ||
कबच अभेद विप्र गुर पूजा | एहि सम बिजय उपाय न दूजा ||
सखा धर्ममय अस रथ जाकें | जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें ||
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर |
जाकें अस रथ होइ दृढ सुनसाहु सखा मतिधीर ||
4 -श्रीमद्भागवत में धर्म के तीस लक्षण बताये गए हैं –
सत्यं दया तपः शौचं तितितेक्षा शमो दमः |
अहिंसा ब्रह्मचर्य च त्यागः स्वाध्याय आर्जवम ||
संतोषः समदृक सेवा ग्रामएहोपरमः शनैः |
नृणां विपर्येयेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम ||
अन्नाधादेहःसंविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हतः |
तेष्वात्मदेवताबुद्धि सुतरां नृषु पांडव ||
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गतेः |
सेवेज्यावान्तिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम ||
नृणामयं परो धर्मः सर्वेषां समुदाहृत |
त्रीनश्लक्षणवानरजनसर्वात्मा येन तुष्यति ||
5 -महात्मा विदुर ने धर्म के आठ अंग बताये हैं –
इज्या, अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा, और अलोभ |
6 -याग्वल्क्य ऋषि ने धर्म के नौ लक्षण बताये हैं –
अहिंसा, सत्य, चोरी नहीं करना, स्वच्छता, इन्द्रियों को वश में रखना, दान, संयम, दया और शांति |
7 -मनुष्य के शरीर में सत्य, संयम, सेवा, सहनुभूति, सद्भाव और मानवोचित शील का नाम धर्म होता है| इसका आलम्बन लेने से लौकिक और पारलौकिक उत्कर्ष हो| बल, बुद्धि और विद्या का जो आधान करने में समर्थ हो उसका नाम धर्म है|
हर युग में धर्म को अपने अपने तरीके से परिभाषित किया गया है| जरूरत है इनपर मनन करने का |
आज के समय में जहाँ हर एक अपने अपने तरीके से हर रोज धर्म को परिभाषित ही नहीं करता अपितु हर नैतिक अनैतिक कार्य को धर्मसंबद्ध बताता है| चिंतन करने की जरूरत है|
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई वाला धर्म,
किसी कार्य के प्रयोजन के लिए किया गया धर्म ( ऐसे कार्य जिन्हेंकरने की सलाह शास्त्र देता है),
पृथ्वी, जल, तेज, वायु में सन्निहित नैसर्गिक धर्म,
मानवीय धर्म,
हर रिश्ते का धर्म,
राजधर्म, प्रजा का धर्म
जिस देश ने धर्म की इतनी व्यापक व्याख्या की हो, जिस देश के नाम में ही भरण करने का धर्म सन्निहित हो उस देश को अखिल विश्व का सिरमौर बनने से कौन रोक सकता है भला|
व्यापक दृष्टि से विचार करने की जरूरत है| हमें यह समझना होगा कि धर्म मोह के अधीन होकर नहीं जी सकता| देश के विभाजन का नाम धर्म नहीं है| धर्म दो हृदयों के बीच दीवार खड़ी करने का नाम नहीं है| धर्म तो दो हृदयों के बीच की दीवार को गिरनेवाला होता है|
अब समय आ गया है कि देश एक ऐसी धर्म नीति अपनाये जिससे कि भारत विश्व का सिरमौर बनने की दिशा में प्रयत्नशील हो और विश्व में धर्मध्वजा की स्थापना करे|
इसके क्रियान्वयन में हम सब को अपना योगदान सहज धर्म और सरल धर्म को धारण करके देना है| धर्म को धारण करना है|
धनादि का नाश होने पर या प्रारम्भ किये गए कार्य में बाधा आ जाने पर या दुःख आ जाने पर भी उद्विग्न नहीं होना है| संतोष और धैर्य को धारण किये रहना है|
दूसरों के प्रति क्षमाभाव रहना है|
मन को निर्विकार भाव में स्थित करना है और उद्दंड होने से रोकना है|
दूसरे की वस्तु की चोरी नहीं करनी है, दूसरों की निंदा नहीं करनी है|
आहार और विचार की शुद्धता रखनी है|
मन, बुद्धि और इन्द्रीओं पर नियंत्रण रखना है|
शास्त्र की प्रासंगिकता को समझकर समसामयिक बनाना है|
सुनना ज्यादा और बोलना कम है|
क्षमा करने पर भी कोई अपकार करे तो क्रोध नहीं करना है|
स्वयं भी जागरूक होना है और औरों में भी जागरूकता लानी है|
समय आ गया है कि हम सब शास्त्रों द्वारा दिखाए गए मार्ग पर अपनी मेधा का सहारा लेकर चलना प्रारम्भ करें और देश में धर्म राज्य की स्थापना करने में अपनी निर्णायक भूमिका न सिर्फ तय करें बल्कि निभाएं भी| एक बार जब हम आंतरिक रूप से सशक्त और धर्मपरायण हो जायेंगे फिर विश्व विजेता बनने से भला कौन हमें रोक सकता है |
धारणात धर्मः !!
@ B Krishna