


आज मनुष्य बड़े बड़े यंत्रों, महायंत्रों की सहायता से अंतरिक्ष को जानने का दावा करता है| सूर्य को जान लेने की बात करता है| ग्रहों को जान लेने की बात करता है| यंत्रों और महायंत्रों की सहायता से वह ग्रहों तक अपनी पहुँच बना पाने में सफल हो चुका है| लेकिन क्या, आज यही मनुष्य कोई ऐसा यन्त्र या महायंत्र बना पाया है जिससे कि वह अपने भीतर जा सके| स्वयं को जान सके| और कुछ नहीं तो कम से कम यह जान सकें कि मैं कौन हूँ ??
जिस यंत्र को बना पाने में आज का मनुष्य असमर्थ है, उसे हज़ारों वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों ने बना लिया था| मज़े कि बात यह कि एक यंत्र नहीं बल्कि कई यंत्र बनाए और उन्ही यंत्रों में से एक यंत्र का नाम है, उपनिषद|
उपनिषद का सरल अर्थ होता है कि शून्य होकर मेरे पास बैठो| भीतर से खाली होकर मेरे पास बैठो|
समय समय पर देश, काल और पात्र के अनुसार इसे समझकर पुनर्परिभाषित किया जाये और जो कुछ भी अतीत में सोचा गया उसे आज भी प्रासंगिक बनाया जाये|
जीवन के मौलिक प्रश्न, मैं कौन हूँ, को लेकर हम आज चलेंगे माण्डूक्य उपनिषद के पास और इसके माध्यम से खुद के भीतर झाँकने का एक प्रयास करेंगे|
मैं कौन हूँ …
Who Am I…
मैं कौन हूँ ??
मेरा क्या वजूद है ??
क्या मैं वह हूँ जो इतना सफल है ??
या वह हूँ जिसे घूमना बेहद पसंद है ??
या फिर …..
…… राम हूँ
श्याम हूँ…
क्या दौलत और शोहरत मैं हूँ ??
भावनाओं, विचारधाराओं, पूर्वाग्रहों का मिश्रण हूँ ??
मैं कौन हूँ इसे जानने की इच्छा हर किसी में होती है |
आइये आज हम ‘माण्डूक्य उपनिषद’, ‘गीता‘, ‘रामचरितमानस‘ के पास चलें |
मैं कौन हूँ, इसको जानने के बाद जीवन में इसकी क्या उपयोगिता है और एक स्वस्थ समाज और एक स्वस्थ राष्ट्र की स्थापना कैसे की जा सकती है, इसको हमलोग ‘ गीता’ और ‘ रामचरितमानस’ से जानेंगे |
‘माण्डूक्य उपनिषद‘ :-
नान्तःप्रज्ञं न बहिःप्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्| अदृश्यमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं
प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ||
इसका सरलीकरण:
1 – जाग्रत अवस्था – इसके लिए श्लोक में ‘बहिष्प्रज्ञः’ शब्द का प्रयोग हुआ है| क्या मैं वह हूँ जो स्थूल शरीर के द्वारा नियमित कर्मों को करता हूँ| सिर से लेकर पांव तक सात अंगों से युक्त होकर, पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, अंतःकरण चतुष्टय और पांच प्राण द्वारा सांसारिक विषय वस्तुओं का भोग करनेवाला, क्या यह हूँ मैं ??|
यहाँ इन्द्रिय, पांच प्राण और अंतःकरण चतुष्टय का साथ है तो ही हमारी बाह्य क्रियाकलाप चल पाती हैं|
जैसे आँखों के द्वारा हम तभी देख पाने में समर्थ हो पाते हैं जब सम्बंधित इन्द्रिय का सहयोग मिलता है| अगर इनकासहयोग मिलना बंद हो जाए तो यह जो गोल गोल दो गोलक हैं यह सिर्फ नेत्र संस्थान बनकर रह जायेंगे, हम देख नहीं पाएंगे |
उदहारण से समझें-
किसी ने आपको आवाज़ दी कि श्याम इधर आओ| तो आप क्या श्याम हैं ?? यक़ीनन आप श्याम नहीं हैं| ये तो आपके माता पिता द्वारा दिया गया एक नाम है | आपका समाज में कलेक्टर साहेब के रूप में बड़ा रुतबा है| तो क्या आप कलेक्टर साहेब हो ?? यक़ीनन आप ये भी नहीं हो| ये तो आपका पद है|
तात्पर्य यह कि इनमें से कोई मैं नहीं हूँ क्योंकि यहाँ हमें बहुत सारे उपादानों का सहारा लेना पड़ता है|

2 – स्वप्नावस्था – इसके लिए श्लोक में ‘अंतःप्रज्ञः’ शब्द का प्रयोग हुआ है| इस अवस्था में हमको एक शरीर प्राप्त होता है और वह शरीर स्वप्न में कभी बहुत सुख की अनुभूति करता है और कभी बहुत दुःख की| इस अवस्था में कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ विराम लेती हैं| अंतःकरण भी अर्ध सुप्त हो जाता है| सिर्फ मन क्रियाशील रहता है| मन पर किसी का लगाम नहीं होने के कारण वह इतना गतिशील हो जाता है कि वह अनेकों रूप ( स्थावर, जंगम) और अनेक समय में व्यक्त होने लगता है|
उदाहरण के लिए जरा सोचिये – परीक्षा शुरू हो चुकीहै| प्रश्नपत्र बाँटे हुए एक घंटे से ऊपर हो चुका है| अन्य सभी छात्र प्रश्नों के उत्तर हल करने में लगे हैं और आप कुछ भी नहीं लिख पा रहे हैं क्योंकि आपको प्रश्न ही समझ में नहीं आ रहा है| धीरे धीरे आप कुछ सोच विचार कर कुछ लिखना आरंभ ही करते हैं कि समय समाप्त हो जाता है और आपसे आपकी उत्तरपुस्तिका ले ली जाती है| आप साल बर्बाद होने की हताशा और निराशा की वजह से गहरे अवसाद में जाकर जोर जोर से रोना शुरू कर देते हैं … कि तभी किसी के झकझोरने से आपकी नींद खुल जाती है और आप एक गहरी सांस लेकर कहते हैं कि बच गया|
कभी कभी ठीक इसके उल्टा भी होता है| आप स्वप्नावस्था में यह देखते हैं कि आप सर्वश्रेष्ठ अंकों से उत्तीर्ण हुए हैं|
तो क्या ये आप हैं ?? या ये मैं हूँ ??
मैं कौन हूँ ?? वह जो जाग्रत अवस्था में इन्द्रियों, अंतःकरण चतुष्ट्य और पांच प्राणों द्वारा संचालित होता है या वह जो स्वप्नावस्था में मन द्वारा संचालित होता है ??
मैं इन दोनों में से कोई भी नहीं हूँ क्योंकि यहाँ संचालन औरों के हाथ में है|
3 – सुषुप्तावस्था – इसके लिए श्लोक में ‘प्रज्ञानघनं’ शब्द का प्रयोग हुआ है| इसे गहरी नींद की अवस्था भी कहा जाता है| घनाकार हो जाना| गहरे समाधि की अवस्था कहा गया है सुषुप्तिवस्था को|
इस अवस्था में सर्दी, गर्मी, बरसात, भूख, प्यास, किसी भी द्वन्द की मह्सूसी नहीं होती है या कहें कि प्राप्ति नहीं होती है| मृत्यु का भय नहीं होता है| किसी भी प्रकार के मनोविकारों की प्राप्ति नहीं होती है और न ही त्रिताप की प्राप्ति होती है| परम समाधि की स्थिति व्याप्त हो जाती है|
तो क्या यह मैं हूँ ??
माण्डूक्य उपनिषद यहाँ कहता है कि इन तीनों स्थितिओं में से स्वप्नावस्था और सुषुप्तावस्था में मेरे शरीर की उपस्थिति तो है लेकिन निष्क्रिय रूप में| शरीर यहाँ सक्रीय नहीं है |जाग्रत अवस्था में जीव जहाँ उन्नीस उपादान मुखी होता है वहीं सुषुप्तावस्था में जीव चेतना मुखी होता है|
जाग्रत और स्वप्नावस्था में आनंद की अनुभूति विषयों के माध्यम से होती है| सुषुप्तावस्था में साक्षात् आनंद ही व्याप्त होता है| इसे व्याप्त होने के लिए किसी भी विषयों का सहारा नही लेना पड़ता है|
इस रहस्य को जान लेने वाले व्यक्तिओं के जीवन में किसी प्रकार की आधि या व्याधि की समस्या नहीं आती है |
इसके आगे माण्डूक्य उपनिषद एक और स्थिति की चर्चा करता है| वह स्थिति क्या है, इसे देखें –
4 – श्लोक जिस स्थिति की चर्चा करता है उसको एक उदाहरण से समझें –
मान लीजिये एक ताम्बे का जग है, एक ताम्बे का ग्लास है और एक ताम्बे का कटोरा है| ये तीनों अलग अलग रूप में हैं, उसे अलग अलग नामों से सम्बोधित किया जाता है| इन तीनों में ताम्बा है लेकिन वह जग, ग्लास और कटोरा कहकर सम्बोधित होता है| ये तीनों रूप अगर नष्ट हो जाएँ, मतलब जग, ग्लास और कटोरे को गला दिया जाए तो ये रूप तो नहीं रहेगा लेकिन ताम्बा तो फिर भी रहेगा|बर्तन गले तो भी ताम्बा और न गले तो भी ताम्बा| यदि तत्व की परीक्षा हो गयी तो जग को गलाया जाये तब भी ताम्बा है और गिलास को गलाया गए तब भी ताम्बा है| ताम्बा, ताम्बा रहकर भी बर्तन बनता है|
ठीक उसी प्रकार ऊपर वर्णित तीनों अवस्थाओं में से हर अवस्थाओं में आपकी उपस्थिति है| जाग्रत अवस्था में शरीर सक्रिय रहता है| स्वप्नावस्था और सुषुप्तिवस्था में शरीर निष्क्रिय रहता है| सक्रिय या निष्क्रिय, तीनों अवस्थाओं में, अवस्थाओं के नष्ट हो जाने के बाद भी, आपकी उपस्थिति रहती ही है यह बात तो तय है |
और यह जो आपकी/ हमारी उपस्थिति है वह कैसी है ?
अदृश्यम – जो देखा नहीं गया है|
अव्यवहारम – जो व्यवहार में नहीं लाया जा सकता|
अग्राह्यं – जो पकड़ने में नहीं आ सकता|
अलक्षणम – जिसका कोई चिह्न नहीं हो ( जैसे धुआं दिखे पर आग नहीं दिखे )|
अचिन्त्यं – जो चिंतन करने में नहीं आ सकता|
अव्यपदेशम – जो बतलाने में नहीं आ सकता| जाति, गुण, क्रिया, सम्बन्ध और रूढ़ि के द्वारा व्यक्त नहीं किये जा सकते हों|
इस स्थिति का जो रहस्य है उसे समझकर, जाग्रत अवस्था में इसकी सिद्धि को उतारने में जो सक्षम हो जाता है वह –
शान्तम – सर्वथा शांत
शिवम् – कल्याणमय
अद्वैतम – अद्वितीय तत्व, को प्राप्त करता है |
और जब ऐसी स्थिति व्याप्त हो जाती है तब-
सः आत्मा – यह तुम हो
सः विज्ञेय – यही जानने योग्य है, अनुभव करने योग्य है|
अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि सुषुप्ति अवस्था में अनुभव की गयी बातों की प्राप्ति और व्याप्ति जाग्रत अवस्था में कैसे हो ?? क्योंकि सुषुप्तावस्था में शरीर निष्क्रिय रहता है|
माण्डूक्य उपनिषद से ‘ गीता ‘ के पास चलें –

“गीता” :-
” नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः |
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||”
आत्मा के लिए यह बात कही गयी है कि इसे न तो किसी शस्त्र द्वारा खंड खंड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है|
अब आप में से कितने लोगों ने भक्त प्रह्लाद की कहानी सुनी है| क्या यही सब प्रह्लाद के लिए नहीं किया गया ?? उसके शरीर को शस्त्र द्वारा मारने का प्रयास, अग्नि द्वारा जलाये जाने का प्रयास आदि नहीं किया गया ? होलिका जल गयी लेकिन प्रह्लाद बच गए| कहने का तात्पर्य यह कि आत्मा का लक्षण प्रह्लाद के शरीर में आ गया| यह कैसे हुआ ??
इसकी चर्चा से पहले आइये भगवान श्री कृष्ण का एक बार फिर आश्रय लें –
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
“बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम |
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ||”
ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रिय सुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अंतस में आनंद का अनुभव करता है|बाह्य विषयों में अनासक्ति हो, मन में ही सुख की प्राकट्य हो और मन एकाग्र हो|अक्षय सुख की प्राप्ति हो|
माण्डूक्य उपनिषद, गीता के साथ रामचरितमानस के पास चलें|

भगवान राम का राज्य जैसा कोई राज्य नहीं हुआ न भगवान राम जैसा कोई राजा|
“रामचरितमानस” :-
‘ दैहिक, दैविक, भौतिक तापा | रामराज्य नहीं काहुहि व्यापा ||
‘ चारिउ चरन धर्म जग माहि |’
भगवान राम के राज्य में न कोई द्वन्द था, न कोई मनोविकार था और किसी को भी दैहिक, दैविक और भौतिक तापों की व्याप्ति नहीं होती थी| किसी प्रकार का शोक व्याप्त नहीं था| (यही तो सुषुप्तावस्था है)|
सिर्फ राज्य में ही ऐसी स्थिति नहीं थी वरन राम ने स्वयं अपने जीवन में भी इस स्थिति को अवतरित किया था| इसको धारण किया था |
तुलसीदास जी कहते हैं –
” त्रेता भै कृतयुग की करनी “
भगवन राम जैसे राजा को प्राप्त करके त्रेता युग में भी सतयुग की प्राप्ति हो गयी|
अब जाने कि ऐसा कैसे संभव है ??
ऐसा संभव हो सकता है आध्यात्म विद्या से| दृढ संकल्प, तप और ज्ञान बल से| इसमें यह क्षमता है कि यह सूक्ष्म को स्थूल में अवतरित कर दे| आत्मा (सूक्ष्म) के गुण को शरीर (स्थूल) में स्थापित कर दे| सुषुप्ति के आनंद को, परम समाधि को, जाग्रत अवस्था में उतार दे| ‘राम’ ने इसे स्वयं भी जाना और समाज के जन जन को इसकी प्राप्ति कराई और समाज में इसे प्रतिष्ठित भी किया |
और इसे जीवन में उतार लेने की कला को जो जान गया, वो
द्वन्द से मुक्त हो गया !
मनोविकारों से मुक्त हो गया !!
त्रितापों से मुक्त हो गया !!!
परम आनंद को पा गया !!!!
मैं कौन हूँ, इसे जान गया !!!!!
मैं को पा गया !!!!!!
आइये दृढ संकल्पित हों, आध्यात्मिक हों, योग बल और तप बल से परिपूर्ण हों|
हम सब अपने मूल की तरफ लौटें| अपने पूर्वजों से बतियाएं और मैं को पाएँ |
सुषुप्ति के आनंद को, परम समाधि को जाग्रत अवस्था में उतारें |
@ B Krishna